आज श्रावण महीने की पंचमी है जिस दिन लोग
प्रायः नाग देवता की पूजा कर नाग पंचमी
मनाते हैं ,लेकिन आयुर्वेद के ग्रन्थ भावप्रकाश के
अनुसार आज के ही दिन आयुर्वेद के महान आचार्य
चरक का जन्म हुआ था I आयुर्वेद को जानने और
समझने के लिए आचार्य चरक के चिकित्सा
सिद्धांतों को समझना अत्यंत आवश्यक है अतः
आयुर्वेद के चिकित्सकों के मध्य आचार्य चरक
महत्व सर्वोपरी है Iआचार्य चरक आयुर्वेद के पहले
चिकित्सक थे जिन्होंने भोजन के पाचन,चयापचय
एवं रोगप्रतिरोधक क्षमता की अवधारणा को
दुनिया के सामने रखा Iभारतवर्ष ही नहीं
बल्कि सम्पूर्ण विश्व में चरक एक महर्षि एवं
आयुर्वेद विशारद के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने
आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ का
सम्पादन किया। चरक संहिता आयुर्वेद का
प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिसमें रोगनिरोधक एवं
रोगनाशक दवाओं का उल्लेख है। इसके साथ ही
साथ इसमें सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि
धातुओं से निर्मित भस्मों एवं उनके उपयोग की
विधि भी बताई गयी है। कुछ लोग भ्रमवश
आचार्य चरक को ‘चरक संहिता’ का रचनाकार
बताते हैं, पर हकीकत यह है कि उन्होंनेआचार्य
अग्निवेश द्वारा रचित ‘अग्निवेश तन्त्र’ का
सम्पादन करने के पश्चात उसमें कुछ स्थान तथा
अध्याय जोड्कर उसे नया रूप प्रदान किया।
‘अग्निवेश तंत्र’ का यह संशोधित एवं परिवर्धित
संस्करण ही बाद में ‘चरक संहिता’ के नाम से
जाना गया।चरक कब पैदा हुए, उनका जन्म कहाँ
पर हुआ, इतिहास में इसका कोई वर्णन नहीं
मिलता है। ‘त्रिपिटक’ के चीनी अनुवाद में
आचार्य चरक का परिचय कनिष्क के राजवैद्य के
रूप में दिया गया है। किंतु ध्यान देने वाली बात
यह है कि कनिष्क बौद्ध राजा थे और उनके कवि
अश्वघोष भी बौद्ध थे । पर चरक संहिता में
बौद्धमत का खण्डन किया गया है। इससे यह
बात गलत साबित हो जाती है कि चरक
कनिष्क के राजवैद्य थे । किन्तु विद्वानगण इस
कथन का आशय इस तरह से लगाते हैं कि आचार्य
चरक कनिष्य के समय में रहे होंगे । चरक संहिता में
अनेक स्थानों पर उत्तर भारत का जिक्र मिलता
है। इससे यह प्रमाणित होता है कि चरक उत्तर
भारत के निवासी रहे होंगे। दुर्भाग्यवश इसके
अलावा चरक के विषय में अन्य कोई प्रामाणिक
जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आयुर्वेद के विकास की जो कहानी प्रचलित है,
उसमें भारद्वाज, पुनर्वसु और अग्निवेश ही
ऐतिहासिक रूप में प्रामाणिक व्यक्ति माने गये
हैं। भगवान बुद्ध के काल में मगध राज्य में जीवक
नाम के प्रसिद्ध वैद्य का जिक्र मिलता है। ऐसे
प्रमाण मिलते हैं कि आयुर्वेद का अध्ययन करने के
लिए चरक तक्षशिला गये थे। वहाँ पर उन्होंने
आचार्य आत्रेय से आयुर्वेद की दीक्षा प्राप्त
की। इससे यह कहा जा सकता है कि आत्रेय-
पुनर्वसु संभवत: आज से लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पहले
हुए। इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि चरक
आज से लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व हुएIचरक संहिता
आयुर्वेद का उपलब्ध सबसे पुराना एवं प्रामाणिक
ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में लिखा गया है।
इसके प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में लिखा गया
है- ‘भगवान आत्रेय ने इस प्रकार कहा।’ इसके कुछ
अध्यायों के अन्त में बताया गया है कि ‘इस तंत्र
यानी शास्त्र को आचार्य अग्निवेश ने तैयार
किया, चरक ने इसका संपदन किया और दृढ़बल ने
इसे पूरा किया।’ इससे यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में
ऋषि आत्रेय के उपदेशों को संग्रहीत किया गया
है। अग्निवेश ने इसे ग्रन्थ का रूप दिया, चरक ने
इसमें संशोधन किया और दृढ़बल ने इसमें कुछ अध्याय
जोड़े। किन्तु इसे कालांतर में ‘चरक संहिता’ के
नाम से जाना गया, इसलिए लोगों में यह भ्रम
फैला कि यह चरक की ही रचना है।
इस रचना को चरक संहिता क्यों कहा गया, इसके
पीछे विद्वानों का तर्क है कि हमारे देश में चरक
नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। हो सकता है कि
अग्निवेश की शिष्य परम्परा में किसी चरक
नामक शिष्य ने इसका खूब प्रचार-प्रसार किया
हो, इसलिए इसका नाम चरक संहिता पड़ गया
हो। जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि
अग्निवेश के शिष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर
जा-जाकर रोगियों का इलाज करते थे। उनके
निरंतर चलते रहने के कारण ही इसका नाम ‘चरक’
पड़ गया होगा।
चरक संहिता में कुछ शब्द पालि भाषा के मिलते
हैं, जैसे अवक्रांति, जेंताक (जंताक-विनयपिटक),
भंगोदन, खुड्डाक, भूतधात्री (निद्रा के लिये)।
इस आधार पर कुछ विद्वान इसका उपदेशकाल
उपनिषदों के बाद और बुद्ध के पूर्व का मानते हैं।
उनका यह भी मानना है कि इसका
प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय अर्थात लगभग 78 ई.
में हुआ।
चरक संहिता का संगठन: चरक संहिता की रचना
संस्कृत भाषा में हुई है। यह गद्य और पद्य सूत्र में
लिखी गयी कृति है। इसे आठ स्थानों (भागों)
और 120 अध्यायों में विभाजित किया गया
है। चरक संहिता के आठ स्थान निम्नानुसार हैं:
1. सूत्रस्थान: इस भाग में औषधि विज्ञान,
आहार, पथ्यापथ्य, विशेष रोग और शारीरिक
तथा मानसिक रोगों की चिकित्सा का
वर्णन किया गया है।
2. निदानस्थान: आयुर्वेद पद्धति में रोगों का
कारण पता करने की प्रक्रिया को निदान
कहा जाता है। इस खण्ड में प्रमुख रोगों एवं उनके
उपचार की जानकारी प्रदान की गयी है।
3. विमानस्थान: इस अध्याय में भोजन एवं शरीर
के सम्बंध को दर्शाया गया है तथा स्वास्थ्यवर्
द्धक भोजन के बारे में जानकारी प्रदान की
गयी है।
4. शरीरस्थान: इस खण्ड में मानव शरीर की रचना
का विस्तार से परिचय दिया गया है। गर्भ में
बालक के जन्म लेने तथा उसके विकास की
प्रक्रिया को भी इस खण्ड में वर्णित किया
गया है।
5. इंद्रियस्थान: यह खण्ड मूल रूप में रोगों की
प्रकृति एवं उसके उपचार पर केन्द्रित है।
6. चिकित्सास्थान: इस प्रकरण में महत्वपूर्ण
रोगों का वर्णन है। उन रोगों की पहचान कैसे
की जाए तथा उनके उपचार की महत्वपूर्ण
विधियाँ कौन सी हैं, इसकी जानकारी भी
प्रदान की गयी है।
7-सिद्धि स्थान
8.कल्प स्थान ये अपेक्षाकृत छोटे अध्याय हैं,
जिनमें साधारण बीमारियों एवं पंचकर्म
चिकित्सा के बारे में बताया गया है।
(साभार: आयुष दर्पण ब्लॉग )
प्रायः नाग देवता की पूजा कर नाग पंचमी
मनाते हैं ,लेकिन आयुर्वेद के ग्रन्थ भावप्रकाश के
अनुसार आज के ही दिन आयुर्वेद के महान आचार्य
चरक का जन्म हुआ था I आयुर्वेद को जानने और
समझने के लिए आचार्य चरक के चिकित्सा
सिद्धांतों को समझना अत्यंत आवश्यक है अतः
आयुर्वेद के चिकित्सकों के मध्य आचार्य चरक
महत्व सर्वोपरी है Iआचार्य चरक आयुर्वेद के पहले
चिकित्सक थे जिन्होंने भोजन के पाचन,चयापचय
एवं रोगप्रतिरोधक क्षमता की अवधारणा को
दुनिया के सामने रखा Iभारतवर्ष ही नहीं
बल्कि सम्पूर्ण विश्व में चरक एक महर्षि एवं
आयुर्वेद विशारद के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने
आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ का
सम्पादन किया। चरक संहिता आयुर्वेद का
प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिसमें रोगनिरोधक एवं
रोगनाशक दवाओं का उल्लेख है। इसके साथ ही
साथ इसमें सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि
धातुओं से निर्मित भस्मों एवं उनके उपयोग की
विधि भी बताई गयी है। कुछ लोग भ्रमवश
आचार्य चरक को ‘चरक संहिता’ का रचनाकार
बताते हैं, पर हकीकत यह है कि उन्होंनेआचार्य
अग्निवेश द्वारा रचित ‘अग्निवेश तन्त्र’ का
सम्पादन करने के पश्चात उसमें कुछ स्थान तथा
अध्याय जोड्कर उसे नया रूप प्रदान किया।
‘अग्निवेश तंत्र’ का यह संशोधित एवं परिवर्धित
संस्करण ही बाद में ‘चरक संहिता’ के नाम से
जाना गया।चरक कब पैदा हुए, उनका जन्म कहाँ
पर हुआ, इतिहास में इसका कोई वर्णन नहीं
मिलता है। ‘त्रिपिटक’ के चीनी अनुवाद में
आचार्य चरक का परिचय कनिष्क के राजवैद्य के
रूप में दिया गया है। किंतु ध्यान देने वाली बात
यह है कि कनिष्क बौद्ध राजा थे और उनके कवि
अश्वघोष भी बौद्ध थे । पर चरक संहिता में
बौद्धमत का खण्डन किया गया है। इससे यह
बात गलत साबित हो जाती है कि चरक
कनिष्क के राजवैद्य थे । किन्तु विद्वानगण इस
कथन का आशय इस तरह से लगाते हैं कि आचार्य
चरक कनिष्य के समय में रहे होंगे । चरक संहिता में
अनेक स्थानों पर उत्तर भारत का जिक्र मिलता
है। इससे यह प्रमाणित होता है कि चरक उत्तर
भारत के निवासी रहे होंगे। दुर्भाग्यवश इसके
अलावा चरक के विषय में अन्य कोई प्रामाणिक
जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आयुर्वेद के विकास की जो कहानी प्रचलित है,
उसमें भारद्वाज, पुनर्वसु और अग्निवेश ही
ऐतिहासिक रूप में प्रामाणिक व्यक्ति माने गये
हैं। भगवान बुद्ध के काल में मगध राज्य में जीवक
नाम के प्रसिद्ध वैद्य का जिक्र मिलता है। ऐसे
प्रमाण मिलते हैं कि आयुर्वेद का अध्ययन करने के
लिए चरक तक्षशिला गये थे। वहाँ पर उन्होंने
आचार्य आत्रेय से आयुर्वेद की दीक्षा प्राप्त
की। इससे यह कहा जा सकता है कि आत्रेय-
पुनर्वसु संभवत: आज से लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पहले
हुए। इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि चरक
आज से लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व हुएIचरक संहिता
आयुर्वेद का उपलब्ध सबसे पुराना एवं प्रामाणिक
ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में लिखा गया है।
इसके प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में लिखा गया
है- ‘भगवान आत्रेय ने इस प्रकार कहा।’ इसके कुछ
अध्यायों के अन्त में बताया गया है कि ‘इस तंत्र
यानी शास्त्र को आचार्य अग्निवेश ने तैयार
किया, चरक ने इसका संपदन किया और दृढ़बल ने
इसे पूरा किया।’ इससे यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में
ऋषि आत्रेय के उपदेशों को संग्रहीत किया गया
है। अग्निवेश ने इसे ग्रन्थ का रूप दिया, चरक ने
इसमें संशोधन किया और दृढ़बल ने इसमें कुछ अध्याय
जोड़े। किन्तु इसे कालांतर में ‘चरक संहिता’ के
नाम से जाना गया, इसलिए लोगों में यह भ्रम
फैला कि यह चरक की ही रचना है।
इस रचना को चरक संहिता क्यों कहा गया, इसके
पीछे विद्वानों का तर्क है कि हमारे देश में चरक
नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। हो सकता है कि
अग्निवेश की शिष्य परम्परा में किसी चरक
नामक शिष्य ने इसका खूब प्रचार-प्रसार किया
हो, इसलिए इसका नाम चरक संहिता पड़ गया
हो। जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि
अग्निवेश के शिष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर
जा-जाकर रोगियों का इलाज करते थे। उनके
निरंतर चलते रहने के कारण ही इसका नाम ‘चरक’
पड़ गया होगा।
चरक संहिता में कुछ शब्द पालि भाषा के मिलते
हैं, जैसे अवक्रांति, जेंताक (जंताक-विनयपिटक),
भंगोदन, खुड्डाक, भूतधात्री (निद्रा के लिये)।
इस आधार पर कुछ विद्वान इसका उपदेशकाल
उपनिषदों के बाद और बुद्ध के पूर्व का मानते हैं।
उनका यह भी मानना है कि इसका
प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय अर्थात लगभग 78 ई.
में हुआ।
चरक संहिता का संगठन: चरक संहिता की रचना
संस्कृत भाषा में हुई है। यह गद्य और पद्य सूत्र में
लिखी गयी कृति है। इसे आठ स्थानों (भागों)
और 120 अध्यायों में विभाजित किया गया
है। चरक संहिता के आठ स्थान निम्नानुसार हैं:
1. सूत्रस्थान: इस भाग में औषधि विज्ञान,
आहार, पथ्यापथ्य, विशेष रोग और शारीरिक
तथा मानसिक रोगों की चिकित्सा का
वर्णन किया गया है।
2. निदानस्थान: आयुर्वेद पद्धति में रोगों का
कारण पता करने की प्रक्रिया को निदान
कहा जाता है। इस खण्ड में प्रमुख रोगों एवं उनके
उपचार की जानकारी प्रदान की गयी है।
3. विमानस्थान: इस अध्याय में भोजन एवं शरीर
के सम्बंध को दर्शाया गया है तथा स्वास्थ्यवर्
द्धक भोजन के बारे में जानकारी प्रदान की
गयी है।
4. शरीरस्थान: इस खण्ड में मानव शरीर की रचना
का विस्तार से परिचय दिया गया है। गर्भ में
बालक के जन्म लेने तथा उसके विकास की
प्रक्रिया को भी इस खण्ड में वर्णित किया
गया है।
5. इंद्रियस्थान: यह खण्ड मूल रूप में रोगों की
प्रकृति एवं उसके उपचार पर केन्द्रित है।
6. चिकित्सास्थान: इस प्रकरण में महत्वपूर्ण
रोगों का वर्णन है। उन रोगों की पहचान कैसे
की जाए तथा उनके उपचार की महत्वपूर्ण
विधियाँ कौन सी हैं, इसकी जानकारी भी
प्रदान की गयी है।
7-सिद्धि स्थान
8.कल्प स्थान ये अपेक्षाकृत छोटे अध्याय हैं,
जिनमें साधारण बीमारियों एवं पंचकर्म
चिकित्सा के बारे में बताया गया है।
(साभार: आयुष दर्पण ब्लॉग )
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