वैद्य , त्रिकाल की चिकित्सा करता है ।
वेद अपौरूषेय कहा गया है, जैसे आयुर्वेद श्लोकबद्ध हैं, वैसे हि ऋचाओं में लिखे है, इन्हे समझना कठिन था, तभी कालांतरमे ब्राहमण-आराण्यक,उपनिषद,पुराण लिखे गये, फिर रामायण-महाभारत आदि, जिससे ज्ञान का सरलीकरण उस मनुष्यकी प्राकृत भाषामें हो जाये।
युक्तिमेतां पुरूस्कृत्य त्रिकालां वेदनां भिषक्
हन्तीत्युक्तं चिकित्सा तु नैष्ठिकी सा विनोपधाम ।
च .शा 1/94
वैद्य त्रिकाल के रोगों की चिकित्सा करता है,
क्योंकि उपधा रहित चिकित्सा नैष्ठिकी चिकित्सा है।
उपधा किसे कहते है ?
धर्म,अधर्म,अज्ञान,वैराग्य,अवैराग्य,एश्वर्य और अनैश्वर्य
इन सात भावों को उपधा कहते है।
यह सब विषय आपको जटिल लगेंगे, पर सब सीखने पड़ेगे। अगर एक सक्षम चिकित्सक बनना है ।
आप सभी जानते हैं कि,
आयुर्वेद त्रिदोष सिद्धान्त पर आधारित है।
यह तो सब जानते है, कि
दोषों का संचय-प्रकोप और शमन का काल होता है, पर
अत: आज का, भूत और भविष्य सभी काल का ज्ञान रखना पड़ेगा तभी दोष और रोग आत्मसात कर पायेंगे।
दोषों का संचय-प्रकोप और शमन का काल होता है, पर
अत: आज का, भूत और भविष्य सभी काल का ज्ञान रखना पड़ेगा तभी दोष और रोग आत्मसात कर पायेंगे।
आज 2 सितंबर है,
यह भाद्रपद मास है,
दक्षिणायन है
और शरद ऋतु 23 अगस्त से आरंभ हो चुकी है,
इस से पहले वर्षा ऋतु थी ।
इसके बाद उत्तरायण 21 दिसंबर से और
हेमन्त ऋतु 23 oct. से आरंभ होगी।
यह कालगणना,
दोषों की स्थिति को जानने का मूल आधार है
जिसे आर्ष ग्रन्थों में 'काल' कहा है।
दोषों की स्थिति को जानने का मूल आधार है
जिसे आर्ष ग्रन्थों में 'काल' कहा है।
यही काल, कारण द्रव्य है,
जो हमारे इस संसार में,
होने के 9 कारण द्रव्यों में से एक,
होने के 9 कारण द्रव्यों में से एक,
खादीन्यात्मा मन: कालो दिशश्च द्रव्य संग्रहः
च. सू .1
कालो हि नाम भगवान् ...
रसव्यापत्सम्पत्ती जीवित मरणे च मनुष्याणामायत्ते।
सु. सू. 6/2
काल ही भगवान है,
द्रव्याश्रित रसों की व्यापत्ती,
द्रव्याश्रित रसों की व्यापत्ती,
प्राणियों का जीवन-मरण ये सब काल के अधीन हैं।
सुखदु:खाभ्यां भूतानि योजयतीति काल:
सभी प्राणियों को जो सुख और दुख होता है,
वो काल के कारण होता है।
यह जो हम लोग ग्रुप में मिले हैं ना,
यह भी काल हि है ।
जो शास्त्रों में लिखा है,और इसी ने हमें मिलाया है ।
जो शास्त्रों में लिखा है,और इसी ने हमें मिलाया है ।
दोषों की तीनों अवस्थों का भी यही एक कारण है,
जैसे अर्थ और कर्म।
जैसे अर्थ और कर्म।
आयुर्वेद का ज्ञान कठिन लगने का कारण क्या है ?
पश्यतोऽपि यथाऽऽदर्शे संकलिष्टे नास्ति दर्शनम्,
तत्वं जले वा कलेषु चेतस्युपहते तथा।
च. शा. 1/55
जिस प्रकार मलिन दर्पणमें अपना मुख दिखाई नही देता, मलिन जलमें पदार्थ नही दिखते उसी प्रकार चित्त के विकारी होने पर वास्तविकता के दर्शन नही होते।
चतुर्णाभृक्सामयजुरथर्ववेदानात्मनोऽथर्ववेदे..
चिकित्सा चायुषो हितायोपदिश्यते।
च. सू. 30/21
चार वेदों में, आयुर्वेद अथर्ववेद का अंग है, जो चिकित्सा का वर्णन करता है, जो आयुष के लिए कही है।
चार वेदों में, आयुर्वेद अथर्ववेद का अंग है, जो चिकित्सा का वर्णन करता है, जो आयुष के लिए कही है।
वेद अपौरूषेय कहा गया है, जैसे आयुर्वेद श्लोकबद्ध हैं, वैसे हि ऋचाओं में लिखे है, इन्हे समझना कठिन था, तभी कालांतरमे ब्राहमण-आराण्यक,उपनिषद,पुराण लिखे गये, फिर रामायण-महाभारत आदि, जिससे ज्ञान का सरलीकरण उस मनुष्यकी प्राकृत भाषामें हो जाये।
आयुर्वेद पढ़ने का मतलब केवल रोगों तक ही सीमित नही है, अपितु संपूर्ण ब्रह्माण्ड का ज्ञान इसमें समाया है, आप इसमें केवल अपने काम की बात लेना चाहें तो भी वह अनेक आधारभूत सिद्धान्तों से जुड़ी होती है, यदी उसका ज्ञान नही है, तो आयुर्वेद कठिन लगेगा।
आजादी के बाद भारत में आयुर्वेद के महाविद्यालय तो खुलते गये पर उनके साथ ayurvedic hospitals नही थे, कुछ colleges तो किसी बिल्डिंग में कुछ कमरे ले कर ही चलते रहे जिनमें OPD भी दिखावे के लिये थे।
होना तो, यह चाहिये कि, पहले आयुर्वेदका hospital बने, पंचकर्म, क्षारसूत्रादि आदीकी सुविधा के साथ फिर college बने, वर्ना practical knowledge कहां मिलेगी ?
प्राचीन समय में गुरूकुल में ही,
गुरू, रोगी देखता था और आयुर्वेद का ज्ञान देता था।
गुरू, रोगी देखता था और आयुर्वेद का ज्ञान देता था।
विदेश में भी पुराने hospitals चर्च में मिलेंगे जिनमें बाद में medical colleges बने।
उस काल मे यह सब कुछ practical based था।
उस काल मे यह सब कुछ practical based था।
स्कूल से ही आयुर्वेद के संक्षिप्त ज्ञान को syllabus में जोड़ा जाना चाहिये जिस से students ayurvedic terminology से familiar रहे ।
मेरी तरह अन्य विद्वान भी, आयुर्वेद में इस प्रकार का चिंतन आयुर्वेद के हित के लिये करते हैं।
- वैद्यराज सुभाष शर्मा MD(Ayu), दिल्ली-34.
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