58-60 वर्ष तक हम स्त्रियों के आर्तव ला देते है जिन्हे 32-35 वर्ष की आयु में ही रजोवरोध हो चुका होता है।
न्याय शास्त्र का एक सिद्धान्त है 'यद् पिण्डे तत्ब्रह्माण्डे'
और 'कालबुद्धिन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च... च सू 1/54 चरकानुसार काल का अति,मिथ्या या हीन रोग भी रोग का मूल कारण है और इसकी चिकित्सा ' विपरीतगुणैर्देशमात्राकालोपपादितै:...' च सू 1/62 अर्थात देश (जांगल आनूप शीत उष्णादि) ,मात्रा (अग्नि,अवस्था और बलागि) और काल के विपरीत गुण वाले औषध योगों से साध्य रोगों से निवृत्ति होती है।
आर्तवकाल 48-50 वर्ष तक है, यह अवस्था रोग ना मान कर काल का हीन योग माने जिसका कारण स्वभाव जैसे माता को भी early manopause होना,आहार -विहार, दिनचर्या से धातु क्षय हो कर वात वृद्धि, कुछ औषध सेवन जिनसे आर्तव काल के काल का विपर्यय आदि है।
इस अवस्था को त्रिदोषज व्याधि मान कर चले जो वात प्रधान त्रिदोषज है।अपान और व्यान वायु,पाचक पित्त और आम की उत्पत्ति होने पर क्लेदक कफ को भी मान कर चलें।इसमें रस-रक्त उपधातु आर्तव दूष्य है,रस वाही और आर्तववाही स्रोतस की संग दुष्टि ले कर चले।
चिकित्सा के लिये इसे चिकित्सा ना मान कर correction कहे और धैर्य के साथ plan of work बनाये ।पुराने समय में जब वर्षा नही होती थी तो यज्ञ करते थे क्योंकि ये काल का हीन योग है, यहां पिण्ड ब्रहमाण्ड न्यायानुसार आर्तव काल का हीन योग है, इस शरीर में भी हमे यज्ञ के लिये दो चीज चाहिये घृत एवं अग्नि , घृत अग्निदीपक है और सामग्री वो जो अग्नि की तरह उष्ण तीक्ष्ण होकर संग दोष का भेदन करे।धातुक्षय अर्थात aging disorder की स्थिति है तो आम दोष दूर करना,रसायन,बल्य,अनुलोमन,वात शमन के साथ पित्त कफ की balancing ,प्रजास्थापन,शुक्रल और बृहंण के साथ मेध्य द्रव्य , मगर उस से पहले निदान परिवर्जन और दिनचर्या का पालन।
ये सब जो हमने आपको लिखा ये इस प्रकार से मिलेगा..
कम से कम 2 महीने तक शतावरी घृत अगर जरूर दें साथ ही शतावरी,खर्जूर (dates),सारिवा ( आचार्य गिरिराज जी ने बताया था इसमें natural steroids है और अपनी practice में हमने सही पाया), बला और बीच बीच में गुडूची, ये रस-रक्त वाही स्रोतस के लिये रसायन है और शतावरी तो आर्तववाही स्रोतस के लिये भी,नवायस लौह 500 mg bd देते रहे।
दो महीने बाद अग्नितुण्डी वटी 1-1 , रज:प्रवर्तिनी 1-1 gm tds, एलुवा 1 gm उलट कंबल 1 gm और हरमल बीज 1 gm दिन में दो बार उष्णोदक से दे ,आरोग्यवर्धिनी 1 gm bd, ये दो महीने निरंतर दे ये चार महीने का चिकित्सा क्रम है , हमें निरंतर report देते रहे ।
ग्रुप में हम कूष्मांड स्वरस के प्रयोग पर बहुत लिखते रहे है कि ये किसी भी allopathic antacid से कहीं अधिक उत्तम है अगर विधि पूर्वक दिया जाये, इसी प्रकार आमलकी स्वरस, मधुयष्ठी प्रयोग पर भी विद्वान अपने अनुभव देते ही रहते है, नीचे article पढ़कर आप शायद समझ जायें कि अब समय आ गया है कि प्रवाल पंचामृत, कामदुधा, यष्टिमधु,आमलकी आदि का युग ही चलेगा...
न्याय शास्त्र का एक सिद्धान्त है 'यद् पिण्डे तत्ब्रह्माण्डे'
और 'कालबुद्धिन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च... च सू 1/54 चरकानुसार काल का अति,मिथ्या या हीन रोग भी रोग का मूल कारण है और इसकी चिकित्सा ' विपरीतगुणैर्देशमात्राकालोपपादितै:...' च सू 1/62 अर्थात देश (जांगल आनूप शीत उष्णादि) ,मात्रा (अग्नि,अवस्था और बलागि) और काल के विपरीत गुण वाले औषध योगों से साध्य रोगों से निवृत्ति होती है।
आर्तवकाल 48-50 वर्ष तक है, यह अवस्था रोग ना मान कर काल का हीन योग माने जिसका कारण स्वभाव जैसे माता को भी early manopause होना,आहार -विहार, दिनचर्या से धातु क्षय हो कर वात वृद्धि, कुछ औषध सेवन जिनसे आर्तव काल के काल का विपर्यय आदि है।
इस अवस्था को त्रिदोषज व्याधि मान कर चले जो वात प्रधान त्रिदोषज है।अपान और व्यान वायु,पाचक पित्त और आम की उत्पत्ति होने पर क्लेदक कफ को भी मान कर चलें।इसमें रस-रक्त उपधातु आर्तव दूष्य है,रस वाही और आर्तववाही स्रोतस की संग दुष्टि ले कर चले।
चिकित्सा के लिये इसे चिकित्सा ना मान कर correction कहे और धैर्य के साथ plan of work बनाये ।पुराने समय में जब वर्षा नही होती थी तो यज्ञ करते थे क्योंकि ये काल का हीन योग है, यहां पिण्ड ब्रहमाण्ड न्यायानुसार आर्तव काल का हीन योग है, इस शरीर में भी हमे यज्ञ के लिये दो चीज चाहिये घृत एवं अग्नि , घृत अग्निदीपक है और सामग्री वो जो अग्नि की तरह उष्ण तीक्ष्ण होकर संग दोष का भेदन करे।धातुक्षय अर्थात aging disorder की स्थिति है तो आम दोष दूर करना,रसायन,बल्य,अनुलोमन,वात शमन के साथ पित्त कफ की balancing ,प्रजास्थापन,शुक्रल और बृहंण के साथ मेध्य द्रव्य , मगर उस से पहले निदान परिवर्जन और दिनचर्या का पालन।
ये सब जो हमने आपको लिखा ये इस प्रकार से मिलेगा..
कम से कम 2 महीने तक शतावरी घृत अगर जरूर दें साथ ही शतावरी,खर्जूर (dates),सारिवा ( आचार्य गिरिराज जी ने बताया था इसमें natural steroids है और अपनी practice में हमने सही पाया), बला और बीच बीच में गुडूची, ये रस-रक्त वाही स्रोतस के लिये रसायन है और शतावरी तो आर्तववाही स्रोतस के लिये भी,नवायस लौह 500 mg bd देते रहे।
दो महीने बाद अग्नितुण्डी वटी 1-1 , रज:प्रवर्तिनी 1-1 gm tds, एलुवा 1 gm उलट कंबल 1 gm और हरमल बीज 1 gm दिन में दो बार उष्णोदक से दे ,आरोग्यवर्धिनी 1 gm bd, ये दो महीने निरंतर दे ये चार महीने का चिकित्सा क्रम है , हमें निरंतर report देते रहे ।
ग्रुप में हम कूष्मांड स्वरस के प्रयोग पर बहुत लिखते रहे है कि ये किसी भी allopathic antacid से कहीं अधिक उत्तम है अगर विधि पूर्वक दिया जाये, इसी प्रकार आमलकी स्वरस, मधुयष्ठी प्रयोग पर भी विद्वान अपने अनुभव देते ही रहते है, नीचे article पढ़कर आप शायद समझ जायें कि अब समय आ गया है कि प्रवाल पंचामृत, कामदुधा, यष्टिमधु,आमलकी आदि का युग ही चलेगा...
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