ગુરુવાર, 19 સપ્ટેમ્બર, 2019

श्री सुभाष वाणी ७


अगर रोगी का allopathic diagnosis हो चुका है जैसे इस रोगी में atopic drematitis तब भी स्वयं रोगी परीक्षा कर दोष दूष्य निर्धारित कर सम्प्राप्ति विघटन कर के ही चिकित्सा की जाती हैं। कई रोगों के उपद्रव स्वरूप भी एसे लक्षण मिलते है और स्वतन्त्र भी।
.....त्वगदाहश्च त्वगदरणं च चर्मदलनं च रक्तकोष्ठश्च रक्तविस्फोटश्च .. रक्तमंडलानि...।  च सू/20

इन्हे हम नानात्मज पित्तज व्याधि में लेते हैं, कई रोगों में व्याधि का नामकरण ना भी कर सके तो दोष दूष्यानुसार चिकित्सा करें।
निदान - fast food culture, synthetic food,frozen food, preserved food, अम्ल, तीक्ष्ण और उष्णादि गुणों से युक्त भोजन इसका प्रधान कारण है।वैसे तो सभी रोग त्रिदोषज ही होते हैं पर दोष बाहुल्य के कारण उन्हे नाम दे दिया जाता है।
इन रोगों की सम्प्राप्ति प्राय: इस प्रकार बनती है...
दोष - वात,पाचक रंजक और भ्राजक पित्त एवं कफ का अनुबंध*
दूष्य - रस, रक्त,त्वचा
अग्नि - कभी मंद, कभी विषम
स्रोतस - रसवाही और रक्तवाही
स्रोतोदुष्टि - अति प्रवृत्ति संग और विमार्गगमन
व्याधि अधिष्ठान - यकृत प्लीहा
उद्भव स्थल - आमाशय
अभिव्यक्ति स्थल - त्वक
स्वभाव - साध्य एवं अल्पकालीन*
चिकित्सा सूत्र - आम पाचन,अनुलोमन,विरेचन,पित्त शामक वातशमन मधुर तिक्त शीत आहार एवं औषध*
चिकित्सा -
द्रव्य  सारिवा,मंजीठ, खदिर,कुटकी,चंदन जैसे द्रव्य।
योग  हरिद्रा खंड, आरोग्य वर्धिनी, पंचतिक्त घृत गुग्गलु
गंधक रसायन (अति रूक्षता में नही प्रयोग करें ) फलत्रिकादि क्वाथ, महामंजिष्ठादि क्वाथ, सारिवाद्यासव,खदिरारिष्ट।
टोपीकल योग : चालमूंगरा (तुवरक तेल),महामरिच्यादि तैल,चंदनादि तैल।
ताजा औषधाहारद्रव्य 
गुडूची स्वरस, कूष्मांड स्वरस, नारिकेल जल, गुलकंद, आंवले का मुरब्बा, करी पत्ता, कुंदरू, टिंडा, सीताफल, तोरई, लौकी, मूंग, मसूर।

श्वित्र मे ,  शशि लेखा वटी 500mg निधि हर्बल जयपुर की, बाकुची क्वाथ के साथ  ,ओर लघु कंटकारी बीज तैल का स्थानिक प्रयोग  के बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं।

  पहले हम एक कुष्ठ- किटिभ कुष्ठ ( psoriasis ) के cases नही लेते थे लेकिन पिछले कुछ वर्ष में psoriatic arthritis के रोगियों को कल्प चिकित्सा में 7 दिन में 900 ml पंचतिक्त घृत पिलाकर 21 दिन का औषध से विश्राम दे दिया और लगभग 30 वें दिन से त्वक रोपण हो कर सारी त्वचा सामान्य होने लगी।अब वर्ष में एक से 2 बार यही कल्प कई रोगियों को करा देते है, रोगी सामान्य और स्वस्थ रहते हैं।घृत अग्निदीपक है और औषध से संस्कारित तो रोग नाशक, चिकित्सा का अर्थ युक्ति है। जब रोगी सामने होता है तो जो निर्णय लिया जाता है वे कई बार शब्दों में लिखकर नही बताया जा सकता।साथ ही जो हम पथ्य आहार संस्कारित कर के देते है जैसे मूंग,मसूर यूष,कृशरा,लौकी या तोरई त्रिकटु, पंचकोल या हिंगु युक्त वो दीपन और पाचन कर्म करते है।
घृतपानकल्प का  आरंभ छोटे छोटे कल्प से करें, ml. में 10,15,20,25,20,15 और 10 ये कल्प अग्नि और बल पर निर्भर है, इस से घृत कल्प का अनुभव भी बढेगा और confidence भी आयेगा। फिर 20,40,80,100,
80,40,20 तक करे। घृत पान प्रात: खाली पेट दें तृषा होने पर दो घूंट उष्णोदक no brake fast , क्षुधा लगने पर दोपहर 1 बजे लघु सूप दीपन-पाचन द्रव्यों से युक्त और रात्रि को कृशरा गर्म मसाला हिंगु युक्त तो घृत का पाचन सुविधा से होता है। एसे रोगियों में एक planning बना कर चला जाता है। प्रात: तक्र और दोपहर दधि हिंगु जीरक युक्त, दोपहर रात भोजन के एक घंटा पश्चात संजीवनी वटी 1 गोली, चित्रकादि वटी (चबाकर) 2 और कुटज घन वटी 2 गोली कम से कम 21 दिन दे।22 वें दिन रात्रि भोजन भोजन में कृशरा सेवन के 3 घंटे बाद 100 ml गौदुग्ध fresh (polypack का नही) लें, पुन: 1-2 दिन बाद फिर 100 ml लें पाचन होने लगेगा तो 200 ml कर दे। दुग्ध केवल रात्रि में ही सेवन करे।

दुग्ध और इस से बनी sweets तथा खीर अभी भूल जाये तथा औषध सेवन कम से कम छह सप्ताह अवश्य करें, किसी भी रोग में हमने देखा है कि immune system develop होने में 21 दिन तो लगते ही हैं।
घृतपान के बाद हम मना करते है कि कम से कम एक घंटा तो बिल्कुल जल ना लें । घृतपान के साथ उष्णोदक ही देना चाहिये। शरूआतमे कई रोगियों में उदर में गुड़गुड़ या अति मल हो जाता है, लेकिन बाद मे घृत सभी को सात्म्य हो जाता है। इतने स्नेहपान के बाद लघु विरेचन जरूर कराते है, विशिष्ट नाममात्र के लघु आहार पर ही रोगी को रखते है जिस से प्राय: कोई उपद्रव नही मिलते अगर उत्क्लेश हो तो प्रवालपंचामृत, कामदुधा एवं शिवक्षार पाचन चूर्ण हम दे देते हैं।
बाकी जैसा हमारे ग्रुप के अतिश्रेष्ठ विद्वान पंचकर्म विशेषज्ञ प्रो. प्रकाश काबरा जी ने जैसा लिखा है कि 100 ml घृतपान तो उन्होने स्वयं भी किया है और कोई उपद्रव नही हुआ ये सत्य है।स्नेहपान से पूर्व सामावस्था ना हो और कल्प चिकित्सा में रोगी को सामान्य आहार ना दे, तीव्र क्षुधा होने पर पंचकोल मिश्रित मूंग,मसूर यूष, तोरई, लौकी  vegetables, आहार में सांयकाल भी यही या पतली कृशरा दे। इसे मानकर चले कि यह सामान्य चिकित्सा हम नही कर रहे, विशिष्ट कल्प चिकित्सा कर रहे हैं जिसमे बहुत से नियमों का पालन करना पड़ेगा।
आयुर्वेद के कई महारोग ऐसी विशिष्ट चिकित्साओं से ही दूर किये जा सकते है जिनमें औषधि और उसकी मात्रा विशेष होने के साथ ही आहार और पथ्य भी अलग ही होगा।

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