ગુરુવાર, 19 સપ્ટેમ્બર, 2019

पंच भौतिकी चिकित्सा

[18/09, 12:15 AM] वैद्य सुभाष शर्मा: नमस्कार आचार्य, इस प्रकार के रोगियों में कोई विशिष्ट पूर्वरूप नही मिलते और अकस्मात व्याधि उत्पन्न हो जाती है जिसमें एक बढ़ा कारण मानसिक भाव है, रोगियों में एक लक्षण कभी कभी 'घबराहट' बहुत मिलता  जिसका संबध हमें व्यान वायु और साधक पित्त में मिला, चक्रपाणि ने भय,शोक और क्रोध को साधक पित्त का कर्म कहा है। 'कामशोकभयाद् वायु: क्रोधात् पित्तम् ' च चि 3 ।

रजोगुण का वात पित्त से और तमो गुण का कफ से संबंध स्पष्ट है, साधक पित्त ह्रदय में रह कर मान,उत्साह,बुद्धि, मेधा और मानसिक इच्छायें पूर्ण करता है, अज्ञान, इन्द्रियों की निर्मलता,palpitation आदि जो कर्म मन पर करता है उनका प्रत्यक्ष संबंध शरीर की शिरा,स्नायु और पेशियों पर पड़ता है।

इस प्रकार के रोगियों की जब भी हमने history ली तो उनमें कोई पूर्व रूप ना मिलकर अधिकतर का जवाब होता है कि ' कभी कभी थोड़ी देर के लिये घबराहट हो जाती थी या दिल बैठा जा रहा है, एसा जरूर लगता है'।इस प्रकार के रोगियों में हम प्रभाकर वटी 2-2 गोली अवश्य दे देते है।


[18/09, 8:12 AM] वैद्य सुभाष शर्मा:
सुप्रभातम् आचार्य जी, आपने तो साधक पित्त का सटीक और practical सार ही निकाल दिया 👌👌👏👏 ये साधक पित्त मेरा प्रिय पित्त है जबकि ग्रन्थों जैसा आपने भी कहा इसका वर्णन तो कम है पर महत्व आधुनिक युग में सब से अधिक क्योंकि आज साईकोसोमेटिक रोगी ही सब से अधिक हैं और जो प्रसन्न हैं उनमें भी ये है ही महत्वपूर्ण🙏🙏🙏 प्रतिदिन clinic clinic से free हो कर दस मिनट खाली बैठ कर रोगियों पर आत्मचिंतन जरूर करता हूं कि आयुर्वेद मे आज नया क्या मिला तो वर्षों से एक ही जवाब मिलता है अपान-व्यान वात,पाचक-साधक पित्त और श्लेषक कफ, बाकी सब अल्प मिले पर अधिकतर में ये ही दोष मिले जैसे संसार ये ही दोष बहुल होता जा रहा है।
[18/09, 12:01 PM] Dr.Bhavesh R.Modh - KUTCH: 🙏 यह पढने के बाद कुछ अनोखी हाइपोथीसीस अवचेतन मन से आने लगी है जो पेश कर रहा हूं  विद्वत् जनो से  अपेक्षा है की इसमें कुछ गलती हो तो कृपया सुधार करने का अवसर दे, इंगित करे,

 वातादि दोष के जो पांच पांच प्रकार बताए गए है वह केवल उनके  स्थान विशेष  व कर्म विशेष के आधार पर मात्र वर्गीकृत किया गया है । इस वर्गीकरण मे शायद   आकाशादि पंचमहाभूत का प्रभाव रहता होगा,

चरकसंहिता मे केवल ( सूत्र के 12 मे अध्याय मे ) वायु के पांच प्रकार मूल संहिता सूत्र के स्वरूप मे निर्देशित है , पित्त व कफ के पांच प्रकार। मूल सूत्र स्वरूप नही बताया गया,
उसी प्रकार सुश्रुत मे पित्त के प्रकार  व वायु के सम्मिलित है पर  कफ के नही है
वागभट्टजी ने कफ के प्रकार के  साथ वायु व पित्त के प्रकार को  समन्वय के साथ निर्देशित किया है,

प्राण - वायुमहाभूत
उदान - आकाश महाभूत
व्यान - जल महाभूत
समान - अग्नि महाभूत
अपान - पृथ्वी महाभूत

पाचकपित्त - पृथ्वी महाभूत
साधकपित्त - आकाश महाभूत
आलोचक - अग्नि महाभूत
भ्राजक - वायु महाभूत
रंजक - जल महाभूत


अवलंबक कफ - आकाशमहाभूत
कलेदक -  जलमहाभूत
श्लेष्क - पृथ्वी महाभूत
बोधक - वायु महाभूत
तर्पक कफ - अग्नि महाभूत ।


त्रिदोष के यह पंचविध प्रकार मे जब कर्म की हानि या वृद्धि होने से जो विकार  उत्पन्न होते है उनकी चिकित्सा मे तत् सबंधि महाभूत का  चिंतन होना चाहिए,

चरकसंहिता सूत्रस्थान  के  अध्याय 26 मे पार्थिव आदि द्रव्यो के कर्म व मधुरादि रसो का विवरण है तो वहाँ से प्राप्त जानकारी से युक्तियुक्त  चिकित्सा कर्म व द्रव्यो से यह महाभूत को बेलेंस करके  तत् सबंधि विकार को सटीक निवारण करने मे मदद मीलेगी ।
[18/09, 1:29 PM] +91 94053 65096: वा सू 12/13 -बुद्धी, मेधा,अभिमान, उत्साह ये साधनोंका उपयोग कर अभिप्रेत अर्थ देने वाला हृदयस्थ पित्त साधक है। सेवन किये हुवें हर एक अन्न का पचन करना जैसे पाचक पित्त का कार्य है, वैसे साधक किस का पचन करता है?  In brief हमारे सामने घटी हुयी हर एक घटना का मानस स्तर पे पाचन साधक करता है। घटना एक ही है ,लेकींन उसका पचन भिन्न भिन्न व्यक्ती मैं अलग अलग होगा । साधक पित्त का अम्लपित्त हो गया, तो jealous भाव पैदा होगा, अगर साधक पित्त मांद्य हुवा तो inferioty complex होगा🙏
[18/09, 1:38 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻 || गुरुबोध ||🙏🏻
- पुष्प ४२ वा-

पांचभौतिक चिकित्सा भाग एक
अध्याय छह - वायू और वायू के प्रकार (भाग ३)

      वाग्भट निदानस्थान में समानवायू दुष्टी सूत्र का वर्णन करते समय दातारशास्त्रीजी कहते है की  (१) विषमाशन, (२) अजीर्ण, (३) शीतभोजन तथा संकीर्ण भोजन ४) अकालशयन, (५) रात को जगना इन कारणों से समान वायू दुष्ट हो जाता है |
      अपान वायू के मार्ग से उपर चढकर आने के बाद दुसरी सिढी समान वायू है | अपानवायू का क्षेत्र अलग होने के कारण उसका प्रकोप होकर वह उन्मार्गगामी होने के लिए जो कारण है वह इससे पहले अपान वायू के समय बताए है | समान वायू की समता बिगडने के लिए विषमाशन यह प्रथम कारण है | "अकाले बहुचाल्पं वा भुक्तं तु विषमाशन ॥वा.सू.॥ अकाल अर्थात आहार सेवन करने का रोज का समय टल जाने पर अतिमात्रा में आहार सेवन करने को विषमाशन कहा जाता है | अकाल / गलत समय पर आहार सेवन करने से प्राण और उदान वायू से जबरन काम करवाना पडता है |  योग्य समय पर काम करने की उनकी तैयारी यहाँ पर नहीं दिखती | इस कारण एक बार अन्नसंघात आमाशय में पहुँचाना बस इतना ही काम उनसे होता है | आमाशय में आनेवाले आहार पर पाचकरस का संस्कार पूर्णतः नहीं होता | जब वह ग्रहणी मार्ग से जाता है तो वहाँ पर भी उस पर पित्त का संस्कार नहीं होता | इस वजह से समान क्षेत्र में आने पर उसका पचन और पृथ:करण अच्छे से नहीं हो पाता | अग्नि का सामर्थ्य कम पड जाता है और इस कारण समान दुष्ट होता है |
      अजीर्ण - पचन के सब संस्कार योग्य नहीं होने के कारण ऐसा आहार समानवायू के क्षेत्र में आने पर उसका पचन और पृथ:करण सही नहीं होता इस वजह से अपाचित आहार से विविध व्याधी उत्पन्न होतें है |
      शीतभोजन - मतलब थंडा भोजन! भोजन बनाने के बाद बहुत समय तक रखा जाए तो अन्न का उष्ण गुण नष्ट हो जाता है | आगे यह शीत गुण प्राण वायू कार्यक्षेत्र से नीचे अपान वायू के कार्यक्षेत्र तक सब वात स्थानों को कैसे बिगाडता है इसका सुंदर स्पष्टीकरण दातारशास्त्रीनीजी ने यहाँ किया है उसे जरुर पढें |
      अकालशयन - वास्तविकतः रात का समय निद्रा लेने का समय है | दिन में नींद लेना निषिद्ध है लेकिन कुछ अवस्थाओं मे नींद लेना सही बताया है | रात में जागने से  रूक्षता बढ जाती है | उसी प्रकार से दिन में सोने के कारण स्निग्ध अर्थात कफ के गुणधर्म बढ जाते है | प्राकृत निद्रा का समय खाना खाने के बाद बताया है | खाने के बाद पाचन के लिए उपयुक्त कफ काल होता है | अकाल शयन से कफ संचय होकर स्त्रोतोरोध उत्पन्न हो जाता है | इस वजह से पृथ्वी और आप इन महाभूतों के  गुणों की वृद्धी होने लगती है | इन सब कारणों के चलते समानवायू दुष्ट होकर शूल, गुल्म, स्थौल्य, प्रमेह इन जैसे विविध व्याधी अपने लक्षण दिखातें है |

🙏🏻 श्री गुरुचरणों में सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 2:17 PM] +91 84519 14231: Extremely sorry but Appa ji never told like this
Panchbhautik  sanghatan-

Pran-  vayu+aap

Udan- vayu+ udan.

Saman- shuddha vayu(vayu+vayu)

Vyan- vayu+ akash

Apan- vayu+ pruthvi
[18/09, 2:34 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻 || गुरुबोध ||🙏🏻
- पुष्प 37 वा-
(हिंदी)

पांचभौतिक चिकित्सा
भाग एक
अध्याय चार - पंचमहाभूतोंका विलीनीकरण और व्याधीनाश (भाग १)

दातारशात्रीजीनें पांचभौतिक चिकित्सा का महत्वपूर्ण सिद्धांत  "महाभूतोंका विलीनीकरण सिद्धांत" यहाँ विस्तारित स्वरूप में बताया है | महाभूतों की उत्पत्ती होते समय सूक्ष्मरुप में होती है | पंचमहाभूतों का लय यानि विलिनीकरण एकदुजे में होते समय उनका स्थूल स्वरुप क्रमशः नष्ट होकर पुन्हः सूक्ष्मरुप में समा जाता है|
       पृथ्वी महाभूत का विलय करने के लिए आप महाभूत को तेज महाभूत की सहाय्यता दि जाए तो विलीनीकरण की प्रक्रिया अधिक गतीसे हो जाती है | और इस वजहसे त्वरित results मिल सकतें है | यहाँ दातारशास्त्रींजीनें आप महाभूत गुण न्यून होने के कारण तेज महाभूत गुणवृद्धि होकर पृथ्वी महाभूत के गुण कैसे बदल देता है यह बताया है | और अगर यही आप महाभूत के गुण सम्यक हो तो पृथ्वी महाभूत के गुणों में क्या बदलाव आतें है इसका वर्णन किया है | यहाँ उदाहरण के लिए खाना जलकर खरपाक हो जाना, मिट्टी का ढेर पाणी में विलिन हो जाना, क्वाथ, चाँवल पकाना इसमें पृथ्वी महाभूत के गुणों पर आप महाभूत और तेज महाभूत के गुणों का तरतमभाव से कैसे परीणाम होता है और परिणामस्वरुप पृथ्वी का विलीनीकरण कैसे होता है इसका वर्णन किया है |
       आप महाभूत पृथ्वी महाभूत के आश्रयसे रहेता है इस लिए पृथ्वी महाभूत के गुणों का परिणाम आप महाभूत पर  होकर उसके अनुसार आप महाभूत का स्वभाव हो जाता है | आप महाभूत के नैसर्गिक गुणों पर तेज महाभूत के गुणों का  प्रभाव अधिक हो जाने से आप महाभूत के स्वाभाविक शीतादि गुण बदलकर उष्ण, तीक्ष्ण गुणवृद्धि हो जाती है और इन गुणों के अनुसार लक्षण, व्याधी प्रकट हो जातें है और यहीं गुणवृद्धि या क्षय अनुसार व्याधीनाशभी कर सकतें हैं |
तेज महाभूत नैसर्गिक रुप से अपनें गुणों से प्रखरता प्रदर्शित करता है | लेकिन तेज महाभूत के गुण शरीरमें जानने के लिए कार्यकारणभाव से या फिर उसके शरीरपर दिखनेवाले परिणामों से समझ सकतें है | किसी द्रव्य में भी तेज महाभूत को गुणोंसे ही समझ सकते हैं | तेज महाभूत पृथ्वी और आप महाभूत का विलीनीकरण करता है | आगे इन तीनों का ग्रास वायू महाभूत करता है |
       वायू और आकाश इन दोनों महाभूतों को अनुमान से समझना पडता है। वायू महाभूत उसकी गती से और  आकाश महाभूत उसके अवकाश से समझा जा सकता है | वायू महाभूत इसी अवकाश में विलीन हो जाता है | आकाश महाभूत से उत्पत्ती और आकाश महाभूत में सब  महाभूतोंका विलय हो जाता है इस लिए ये आकाश महाभूत का अवकाश जितना समझ में आजाए उतनी व्याधी अवस्था समझनें में आसान हो जाती है | क्योंकि दातारशास्त्रींजीनें यहाँ चिकित्सा का, व्याधीनिदान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण सूत्र बताया है और वो है, "आकाश (अवकाश) यानि आरोग्य और आकाश की (अवकाश) कमी मतलब अनारोग्य की जड" |
       ये सब बार बार पढनेसे और याद करने से समझने में आसानी हो जाती है! और जब तक ना समझें तब तब उसे पढते रहना है लेकिन छोडना नहीं है । क्योंकि चिकित्सा करते वक्त ये सब मुद्दे बहुत  महत्त्वपूर्ण हैं | और इसी वजहसे चिकित्सा मूलस्थानसे सुलभतासे की जाती है ।

🙏🏻 श्री गुरुचरणोंमें सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 2:35 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻|| गुरुबोध ||🙏🏻
- पुष्प ४३ -

पांचभौतिक चिकित्सा भाग एक
अध्याय छह - वायू और वायू के प्रकार (भाग ४)

        व्यान वायू को उसकी गती के कारण विशेष महत्व दिया गया है | रसरक्तादी धातूंओं के वर्धन, पोषण, क्षपण कर्म में व्यानवायू की गती का  विचार मुख्यतः करना पडता  है | हमारें शास्त्रों के अनुसार प्रमेह व्याधी में व्यानवायू को नजरंदाज नहीं कर सकते | इतना उसकी गती का महत्त्व है | सृष्टी में सभी प्राणीमात्र के सब व्यवहार इस वायू के तंत्रपर निर्भर है | इसलिए उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए |
        अतिचंक्रमण, चिंता, क्रीडा - हात पैर की विकृत क्रिया, विरोधी रुक्ष आहार; प्रीती, आनंद, खेद इत्यादी कारणों से यह दुष्ट हो जाता है | किसी भी विषय का अति चिंतन करने से मनोवह स्रोतस पर परिणाम होकर उसका उपसर्ग शरीर को सहना पडता है | हृदयस्थित व्यानवायू पर उसका परिणाम होने से एकस्वरूप होने के कारण शेष चार वायू भी दुष्ट हो जातें है । प्रीती, आनंद और खेद यह मनोधर्म है | अतिचिंतन के जैसा ही कुछ परिणाम शरीर पर होता है | मन अधिक व्याकुल होने पर भी आगे कुछ व्याधी लक्षण दिखने शुरू हो जाते है |
        प्राकृत उदान वायू वाक्प्रवृत्ती, प्रयत्न, ऊर्जा, बल, वर्ण, स्मृती ये क्रिया अच्छी तरह से करता है | अपानादी वायू अपने स्थान पर रहकर अपना काम योग्य प्रकार से करतें है | वायू की प्राकृत गती स्वस्थ निरोगी शरीरावस्था का लक्षण है | च्छर्दी, छिंक, उद्गार /डकार यह वायू की कक्षा के रोग है | छिंक को विरोध करना मतलब वायू की गती को विरोध करने जैसा है | ज्वरमुक्ती लक्षण में छिंक आना यह अच्छा लक्षण माना जाता है | यह लक्षण वायू प्राकृत होकर अपने पूर्व शरीर धारण का कर्म प्राकृत स्वरूप से कर रहा है ऐसा इसका लक्षण है | बाकी सब कारण साधारण है उनका वर्णन पहले किया गया है | लेकिन अतिहास्य का क्या परिणाम होता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दातारशास्त्रीजीनें यहाँ बताया है ।
        इस प्रकरण में दातारशास्त्रीजीनें वायू के चार प्रकारों की दुष्टी का महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण सरल भाषा में किया है, इस कारण समझने में सुविधा होती है |
🙏🏻 श्री गुरुचरणों में सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 2:37 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻 || गुरुबोध || 🙏🏻
- पुष्प ४६ वा-

पांचभौतिक चिकित्सा भाग एक
अध्याय ७ - औषधी सेवन काल (भाग २)

अपान काल का विश्लेषण करते समय दातारशास्त्रीजी ने कहा है की​ संग्रहकार इस काल को "प्राग्भक्त" कहते है और वाग्भटाचार्य ने इसे 'अन्नादौ' कहा है | मतलब औषधियों​ की योजना खाना खाने से पहले करनी होती है | दुसरे प्रहर में या शाम को खाना खाने से पहले औषधि योजना करनी होती है | विशेषतः अपान वायू का प्रक्षोभ होने के बाद उसका शमन करने हेतू इस काल पर औषधी योजना करनी पडती है | आंत्र के तीसरे​ भागपर यानि प्लीहा से निचे जानेवाले स्थानपर, सिधा वायू इंद्रिय तक , औषधि की व्याप्ती खाना खानेसे पहले लेने के बाद होती है | अपान कारणपरंपरा से विगुण हो जाता है | अपान वायू उसकी स्वाभाविक नैसर्गिक गती छोडकर विमार्गग हो जाता है | नैसर्गिक गति से मलरुप द्रव्य बाहर जातें है, वह त्याज्य होते है इस लिए उनका शरिर को उपयोग नहीं होता | लेकिन वही अगर प्रतिलोम हो जाए यानि उसकी गती अनैसर्गिक हो जाए तो उस गती पर मलरूप  द्रव्यों का ऊष्ण संस्कार होकर उसका नैसर्गिक गुणधर्म नष्ट हो जाता है | उसमें उष्णत्व की झलक दिखाई पडती है | यह ऊष्णत्व मलरूप होने से अधिक नुकसानदायक होता है | अपानवायू की गती विकृत होने के बाद वायू स्वरूप एक होने के कारण उसका परिणाम सब शरीरपर होता है | उसी प्रकार आमाशयस्थ वायू की गतीपर भी परिणाम होता है | इसी प्रतिलोम गतीको फिर से अनुलोम गती देकर अपान वायूके प्रकोप का शमन किया जाता है | इसलिए अन्नग्रहण करने से पहले औषधि सेवन करना होता है | विविध औषधि विविध संस्कारों से तैयार की जाती है | औषधी का उस गतीसे पहली बार संपर्क होने से उस औषधि के वीर्य से मलरूप गतीको भी अपनी गती उल्टी दिशा में चलाने की शक्ति नहीं रहती वह अपनी नैसर्गिक मार्ग से जाने का प्रयास करती है | इन प्रयत्नों को औषधि का साथ मिल जाने से औषधीयुक्त गती आगे चलती रहती है | सिद्धौषधी से गती का उष्णत्व कम हो जाने से ऊर्ध्व दिशा में गमन करने की शक्ती नहीं रहती | अगर अपान का प्रक्षोभ प्रबलतर हो तो सिद्ध तैल प्रभावी कार्य करते है ऐसा अनुभव है |इसलिए ऐसी अवस्था में सिध्दतैल जैसी औषधि की योजना करने से वात प्रशमन​ अच्छे से होता है | सिध्दतैल से गती में आया हुआ उष्णत्व जल्दी कमी हो जाता है | उष्णत्व का  'उर्ध्वगमन' धर्म है | उसका शमन होने से नैसर्गिक वात की गती प्राकृत हो जाती है | यहाँ इस गती को मार्गदर्शन करने के लिए भी  सिद्धतैल का अच्छा उपयोग होता है | तैल पार्थिव स्वरूप होने के कारण उसका अधोगति स्वभाव यहाँ कार्य करता है | इससे  वात का शमन और अनुलोमन होता है जो सम्यक लक्षणों से जान सकतें है | इसी प्रकार से वाहन पर बैठने से या किसी अन्य कारण से अपान वायू का क्षोभ होकर मलाशय पर परिणाम होकर उसे अबलत्व आ जाता है | कभी कभी मलाशय की धारणाशक्ती क्षीण हो जाती है | ऐसे वक्त इसी काल पर यानि अपान काल पर औषधि योजना की जाए तो उस स्थान को अच्छा बल प्राप्त होकर उसकी धारणाशक्ती बढ जाती है |

🙏🏻 श्री गुरुचरणों मे सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 2:37 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻 || गुरुबोध ||🙏🏻
- पुष्प  ४८ -

पांचभौतिक चिकित्सा भाग एक
अध्याय ७ - औषधी सेवन काल (भाग ४)

अधोभक्त यानि व्यान और उदान काल का वर्णन करते समय दातारशास्त्रीजी कहते है की, खाना खाने के बाद औषधी योजना दो प्रकार से करनी चाहिए | दुसरे प्रहर के खाने के बाद औषधी योजना की जाए तो उसका असर व्यानवायुपर होता है | उसी तरह से रात का खाना खाने के बाद औषधी योजना करने से उसका परिणाम उदान वायू पर होता है | इन दो काल में जमीन और आसमान का अंतर है | व्यान वायू पर कार्य करने वाली औषधी दुसरे प्रहर के काल में ग्रहण करनी होती है | यह पित्त काल है | इस काल में पित्त के गुणों की वृध्दी हो जाती है | उष्णत्व और तीक्ष्णत्व इन दो प्रधान गुणों की वृद्धि हो जाती है | इस कारण पित्त काल का वायू कि गती पर परिणाम होता है |  इस गती को उष्णत्व और तीक्ष्णत्व का कुछ संपर्क हो जाता है | विशेषतः सप्त धातुओं पर कार्य करने के लिए ( विशेषतः रस रक्त धातूपर ) जल्द कार्य करने के लिए इन काल में औषधी देने कि  योजना है | इसका परिणाम भी अच्छा होता है | अन्न का विभाजन होकर सार और किट्ट भाग पृथक हो जाने के बाद सार भाग हृदयस्थित हो जाता है | उसके साथ औषधी अंश वहाँ जाकर अपना स्वरुप प्रकट करने लागते हैं | रसक्षय के लक्षण तो इस औषधी योजना से चार दिन में कम हो जाता है यह अनुभव है | पित्त काल के कारण अग्नि और वायू का मीलन एक-दुसरे के लिए पूरक होता है | उन्हें शरीरस्थ धातूओं का वर्धन करना होता है | इस वक्त पित्त काल को ध्यान में रखकर और औषधी का वीर्य ध्यान में रखकर वहाँ सिध्दांतों कि योजना की जा सकती है | इस काल में दी जाने वाली औषधी से धातुओं के पचन व्यापार अच्छे हो जातें है|
रात को खाना खाने के बाद औषधि योजना करने से  उदानवायू पर उसका कार्य होता है | खाने का समय अमुमान सात या आठ बजे तक होती है | पूरा दिन काम करके लोग शाम को अपने घर आते है | पूरा दिन काम करने से शरीर थक जाता है और इस कारण वात दोष कि गती बढ जाती है | वायू के गुणधर्मों का सहाय्य मिलकर वह अधिक बलशाली जो जाती है | शाम के समय वह काम करते वक्त वात काल से समान गुणों की सहाय्यता मिलती है | विशेष रुप से उर:स्थान में विकृती आने से उस पर कार्य करने के लिए इस काल में औषधि योजना कि जाती है | कास जैसी व्याधि में कफ का उपद्रव बहुत होता है | कफ का शीत गुण वात के शीत गुण समान है | अर्थात कफ का शीत धर्म, शाम के समय का वात का काल और उसके शमन के लिए उदानवायूपर दी जानेवाली औषधि योजना यह त्रिसूत्र  व्याधीनाश करने के लिए कारण होता है | विशेषतः कास जैसी या फिर कफप्रधान ज्वर जैसी उर:स्थानस्थित विकृती ठीक हो जाने के बाद उस स्थानपर जो परिणाम होता है उसे नष्ट करके उसे बलवान करने के लिए इस काल पर औषधि योजना सफल होती है | रक्त धातू को बलवान करके फुफ्फुस को बलवान करने के लिए इस काल पर औषधि योजना करनी चाहिए | कफ दोष पर कार्य करने के लिए टंकण जैसे उष्ण, तीक्ष्ण औषधि की योजना करने का पाठ है | इससे उदान वायु, कफ के गुणधर्म और वात दोष काल इन तीनों का शमन होता है |

🙏🏻 श्री गुरुचरणों मे सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 3:01 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻|| गुरुबोध ||🙏🏻
- पुष्प ४५ वा -

पांचभौतिक चिकित्सा भाग एक
अध्याय ७ - औषधी सेवन काल (भाग १)

हमारे आचार्योंने सूक्ष्म और दिव्यदृष्टी से बताए सिद्धांतो का महत्व बताकर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करके दातारशास्त्रीजी ने औषधी सेवन काल का वर्णन किया है | अष्टांगहृदय और अष्टांग संग्रह इन दो ग्रंथों के विचार उन्होंने बडी  सुलभता से बताएँ है | पहले उन्होंने अभक्त यानि अनन्न कालका विस्तार पूर्वक वर्णन किया है | वात और कफ दोनों का एकत्रित विचार इस सेवनकाल पर औषधि देते सयम करना चाहिए | इस काल में आमाशय रिक्त होता है | इस वजह से दि गयी औषधि का अन्न से संपर्क नहीं आता | औषधि स्वतंत्र स्वगुणभूयिष्ठ रहने के कारण उसका वीर्य कम नहीं होता है | इस वजह से उनका कार्य जल्दी से हो जाता है | इसे और विस्तारसे समझने के लिए दातारशात्रींजीने दो (दृष्टांत)
उदाहरण दिए है | वात और कफ का विचार कैसे करना चाहिए यह इन उदाहरणों से समझा जा सकता है | इन उदाहरणों का जरुर अभ्यास करें |
संप्राप्ती का विचार करके इस काल में यकृत, मूत्रपिंड पर कार्य करनेवाली , रसायन कार्य करनेवाली औषधि दे सकतें है | इससे व्याधी संप्राप्ती भंग होने के लिए अभक्त यानि अनन्न काल बहूत महत्वपूर्ण सिध्द होता है |

🙏🏻 श्री गुरुचरणों मे सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 3:02 PM] +91 96176 17746: 🙏🏻 || गुरुबोध || 🙏🏻
- पुष्प ४९ -

पांचभौतिक चिकित्सा
भाग एक
अध्याय ७ - औषधी सेवन काल (भाग ५)

पाँच वायु में से चार वायु के काल स्पष्ट करने के बाद दातारशास्त्रीजी ने आगे प्राण वायू पर कार्य करने वाले काल का वर्णन किया है | उसमे वो कहते है,
१) सग्रास - प्राण वायू इंद्रियधारी है जो ष्ठीवन और अन्न प्रवेश यह दो कर्म मुख मार्ग से करता है। मुख मार्ग से अन्न ग्रास लेकर उसका चर्वण करने के पश्चात गल मार्ग से उसे अन्ननलिका में छोडना यह प्राणवायू का कार्य है | उसके आगे उदानवायू का क्षेत्र होता है | प्राणवायू कि विकृती उत्पन्न हो जाए तो उपरोक्त औषधी योजना करनी पडती है | विशेषतः कास व्याधी लक्षण उत्पन्न होने के बाद उसके शमन हेतू और प्राणवायू कि विगुण गती को सुगुण करने के लिए उपर बताए गए कालपर औषधी योजना करनी चाहिए | एवम् वायू कि गती को मूलगती पुनः प्राप्त करवानी होती है | हर एक वायू को उसकि खुद कि स्वतंत्र गती नहीं है वह एक ही है | इस बारी भी अपान वायू को ध्यान में रखकर चिकित्सा करनी होती है | यानि कि प्राणवायू भी अपने मार्ग पर आ जाता है | कार्य कारण संबंध ध्यान में रखना चाहिए | मूत्रपिंड विकृती उत्पन्न हो जाए तो कास जैसी व्याधी उत्पत्ती होती है। इस कास के लिए प्राण काल पर औषध योजना करके कोई फायदा नहीं है | यहाँ मूत्रपिंड को कार्यक्षम करने से कास लक्षण में उपशम मिलता है | इसलिए चिकित्सा करने के लिए व्याधिदर्शन अच्छा होना जरुरी है |
२) मुहुर्मुहु - इस चिकित्सा में आमाशय तक का प्रदेश  समाविष्ट होता है | अर्थात् प्राण और उदान इन दो वायू से कार्य करवाना पडता है | कई बार श्वास और कास इनका उपद्रव बहूत होता है और इस वजह से बारबार उपद्रव होता है | यहाँ वात शमन और व्याधीनाश होकर रुग्ण को आराम मिलने के लिए ५-५ मिनिट अंतराल में औषधि योजना करनी होती है | इसका बहुत सुंदर परिणाम होता है |
आगे दातारशास्त्रीजीने हिक्का व्याधी का दृष्टांत दिया है | इसमें  सुवर्ण, मयूरपिच्छा भस्म, शहद के साथ देनेपर कैसे हिक्का कम हो जाती है इसका वर्णन किया है |

🙏🏻 श्री गुरुचरणों मे सादर अर्पण 🙏🏻
[18/09, 3:15 PM] +91 96176 17746: प्राण वात seated in moordha,प्राण वात controls most of neuro- endocrine functions.
साधक पित्त is also responsible for for basic endocrine function.
अवलम्बक कफ is related with overall कफ function in body.
The doshic tried of प्राण-साधक-अवलम्बक is very much applicable in primary understanding of endocrine function

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